एक प्रयास, लुप्त होती हुई ब्रज वृन्दावन की रासलीला संस्कृति को बचाने का
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1. रास क्या है, रासलीला का क्या इतिहास, क्या महत्व, क्या आवश्यकता है ?
2. ब्रज वृन्दावन की पहचान - रासलीला
3. रासमंडलियों की चिन्ताजनक स्थिति
4. नित्य रासलीला की आवश्यकता
5. स्थाई कोष कि आवश्यकता
6. श्री हिताश्रम में नित्य रासलीला
7. रासलीलानुकरण का मूल स्त्रोत
8. रास लीला नुकरण का पुनरुद्धार
9. वर्तमान में रासलीलानुकरण की स्थिति
जिस प्रकार श्री मद् भागवत को श्री कृष्ण का वाद्न्ग्मय स्वरूप कहा जाता है तद्वत ब्रज - वृन्दावन धाम भी श्री कृष्ण का ही स्थूल साक्षात् स्वरूप है । पुराणों में कहा भी गया है - 'पंचयोजनमेवास्तिवनंमेदेहरूपकम्' अर्थात् यह पांच योजन विस्तार वाला वृन्दावन मेरा (श्री कृष्ण का ) ही स्वरूप है । इससे यह बात निभ्रांत निर्भ्रान्त रूप से स्पष्ट हो जाती है कि श्री कृष्ण और उनका यह प्रेममय, रसमय, चिन्मय धाम दोनों अभेद हैं ।
ब्रज वृन्दावन धाम अपनी कुछ विशिष्टताओं के लिये विश्व वन्घ, विश्व विख्यात है । रसिक शेखर श्री श्यामसुंदर एवं रसिकनि श्री किशोरी जू के पावन पादारविन्दों के चिन्हों से चिन्हित यहाँ कि ' रज ' मनो रस प्रदान करने वाली अधिकृत - भूमि है । श्री किशोरी जू के दिव्य श्री अंगो का अंगराग जो साक्षात् श्रृंगार रस रूप से श्यामवारि पहिनी श्री यमुना जी के रूप मे यहाँ सतत् प्रवाहमान है एवं इस रस -वारि का अभिसिञ्चन पाकर तुष्ट पुष्ट हुईं तमाल से लिपटी पुष्पित एवं सुवासित तरुण लताएँ, यहाँ कि निविड़ कुञ्ज निकुञ्जे , स्वयं ब्रजेन्द्रनन्दन श्री कृष्ण द्वारा पूजित व प्रतिष्ठ गिरीश्रेष्ठ श्री गोवर्धन की यहाँ विघमानता । लीलातनुघारी आनन्दकन्द सचिदानन्द घन परिपूर्णतम ब्रह्म श्री कृष्ण द्वारा इस परम पावन धरा पर प्रकट होकर विविध भुवन मोहनी, लोकपावनी लीलाएँ सम्पन्न की गईं । इस रसमय ब्रहम द्वारा की गईं विभिन्न लीलाओं जैसे मृतिका भक्षण , माखन चोरी लीला, गौ चारण लीला, गोवर्धन धारण लीला, उद्धव लीला आदि - आदि लीलाओं में से सबसे प्रमुख है - ब्रज की प्रेममयी गोपियों के साथ बद्ध - बाहु होकर शारदीय पूर्णिमा को की गई " रासलीला "।
रासलीला का क्या महत्व है ? इसकी क्या आवश्यकता ? उसका इतिहास क्या है ? इसकी वर्तमान स्थिति क्या है ? इन सब बातों पर विचार करने से पूर्व हमारे लिए यह समझ लेना परम आवश्यक है की ' रास ' है क्या?
'रसानांसमूहोरास:' रास शब्द रस से व्युत्पभ है । रस की चरमावस्था ही रास है । जिसमें एक रस ही रस, समूह के रूप में प्रकट होकर स्वयं ही आस्वाघ - आस्वादक, लीला धाम और विभिन्न आलंबन - उद्धीपन के रूप में क्रीडा करे - उसका नाम ' रास ' है । श्री युगल के इसी निकुञ्ज केलि रास रस का ब्रज - वृन्दावन के सुरसिकजन सखी भाव भावित हो अहर्निश चिन्तन करते हैं ।
यह बात शतप्रतिशत सत्य है कि श्रवण की अपेक्षा द्र्श्य दृश्य - दर्शन का मन पर विशिष्ट प्रभाव पड़ता है और वह भी यदि मनो - वांछित झांकी दर्शन को मिल जाय तो कहना ही क्या ? श्री युगल सरकार की जिन लीलाओं के दर्शन के लिए हम मानसी भावना में आँखे मूंदे प्रयासरत रहते हैं , उन्हीं युगल सरकार का दर्शन खुले नेत्रों से करने को मिले , उपासक का इससे बड़ा सौभाग्य क्या होगा ? यथार्थ में तो इस कराल कलिकाल में मलिनताओं से परिपूर्ण मन से नित्य - बिहारी लाल की उस अति दिव्य नित्य- लीला का दर्शन कर पाना सर्वसामान्य जनों के लिये संभव ही नहीं । यह तो आचार्य चरणों की अहैतुकी कृपा का ही फल है जो आज हम इसे चर्म - चक्षुओं से देख पते हैं ।
महात्म्य -
रसघन मोहन मूर्ति गोपीजन वल्लभ मदन मोहन की यह सर्वलीला मुकुटमणि रास लीला के श्रवण दर्शन से रासेश्वरी श्री कृष्ण के मंजुल मृदुल चरणारविन्दों में पराम, परानुरर्क्ति की प्राप्ति होती है, साथ ही आनुषंगिक रूप से अविलम्ब ' ह्दयकेरोग ' - काम वासनाओं का सदा के लिए विनाश हो जाता है । रास पंचाध्यायी के उपसंहार मे ब्रहमरात श्री शुकदेव जी द्वारा वर्णित फलशुनि में ऐसा कहा गया है ।
भक्तिं परां भगवति प्रतिलभ्य कामं हद्रो गमाश्रपपहिनोत्थचिरेण धीर
रासलीलानुकरण का मूल स्त्रोत -
वर्तमान में किये जाने वाले रासलीलानुकरण पर यदि हम गवेषणात्मक दृष्टि डालते है तो हमें ज्ञात होता है कि यह भी वृन्दावन में अनादि काल से होते चले आ रहे नित्य रास का ही अनुकरण है, अवतरित रास का नहीं ; क्युकी इस रास में आज भी रासेश्वरी श्री राधे जू का प्राधान्य प्रत्यश दृष्टिगोचर होता है । श्री कृष्ण द्वारा श्री किशोरी जू से रास प्रारम्भ करने की आज्ञा मांगना एवं सखी परिकर द्वारा रास की व्यवस्था बनाने के उपरान्त श्री लाल जू द्वारा श्री स्वामिनी जू से रासमण्डल में पधार कर रस - वर्षण की प्रार्थना - ये सब बातें प्रत्यश रूप से इंगित करती हैं कि वर्तमान में किये जाने वाला रास ' नित्य - रास ' का ही अनुकरण है ।
रासलीला नाम से अभिसंज्ञात इस रास - लीला में प्राम्भिक काल में मात्र नित्य रास का ही अनुकरण किया जाता था । श्री कृष्ण के जीवन की विभिन्न रसमयी लीलाओं का समावेश तो इसमें पश्चात् में हुआ । वास्तव में रास लीला जैसा की नाम से ही स्पष्ट है इसके दो भाग होते हैं प्रथम भाग में नित्य रास का अनुकरण एवं दुसरे भाग में निकुञ्ज लीला किंवा श्री कृष्ण की अवतार कालीन ब्रज लीलाओं का अनुकरण किया जाता है ।
प्रगट जगत में रासलीलानुकरण का मूल स्त्रोत -
लीलानुकरण की परम्परा अति प्राचीन समय से चली आ रही है । श्री मद् भागवत की रास - पंचाध्यायी में श्री कृष्ण के अन्तर्धान होने पर उनके विरह में व्यथित गोपियों द्वारा श्री कृष्ण की पूतना वघ लीला, यमलार्जुन लीला, गोवर्धन धारण आदि विभिन्न लीलाओं के अनुकरण का वर्णन मिलता है । अनुकरण करना तो मानव का सहज स्वभाव ही है । वैसे तो लीलानुकरण की प्रथा सतयुग से ही चली आ रही है । सतयुग में महाराज इक्षवाकु जी का श्री रामलीलानुकरण करना पाया जाता है । त्रेतायुग में भी राम जी का बाल्यवास्था में राजाओं के चरित्र का अनुकरण करना पाया जाता है ।
इस तरह हम देखते हैं कि ब्रजलीलानुकरण कि आचार्य तो ब्रज गोपियाँ ही हैं एवं जहाँ तक रास लीला नुकरण का प्रशन है यह नित्य धाम श्री वृन्दावन नित्य रूप से होने वाली नित्य विहारी नित्य विहारिण कि लीला का ही अनुकरण है । यह रासलीलानुकरण कब से प्रचलन में है सही से नहीं कहा जा सकता । १६ वीं शताब्दी के पूर्व तक ताऊ श्री वन प्राय : निविड़ वन ही था परन्तु पश्चात् में रसिकचार्यों के ब्रज - वृन्दावन में आगमन के साथ ही रासलीलानुकरण का भव्य स्वरूप सामने आया ।
रास लीला नुकरण का पुनरुद्धार -
१६ वीं शताब्दी का समय इतिहास में भक्ति काल के नाम से जाना जाता है । इस समय देश के विभिन्न भागों में आचार्यों का प्राकट्य हुआ । संतोष कि बात कि रास रस रसिक रसिकाचार्यों का प्रादुर्भाव भी इसी काल में हुआ जिनमें वंशी अवतार सर्व श्री हित हरिवंश महाप्रभु, स्वामी श्री हरिदास जी महाराज , श्री हरीराम ब्यास जी , श्री चैतन्य महाप्रभुपाद, श्री भट् जी , श्री वल्लभाचार्य जी आदि सभी महानुभावों ने रासलीला के पुनरुद्धार में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया ।
श्री राधावल्लभकिंवा हित सम्प्रदाय -
रहसि रास प्रकट कर्त्ता परमाचार्य श्री हित हरिवंश महाप्रभु का संवत् में श्री वृन्दावन धाम में आगमन हुआ । परमाराध्य श्री राधावल्लभ लाल के आदेशा-नुसार आपने श्री वृन्दावन धाम के विभिन्न रसमय लीलास्थलों का प्रागट्य किया । रास बिहारी साकार ने ही उन्हें स्वयं के चैनघाट ( वर्तमान में गोबिंद घाट ) पर रास रस विलसने की बात कही एवं यहाँ रास - मण्डल निर्माण की आज्ञा की । चाचा श्री हित वृन्दावन दास जी ने ' श्री हित परिकर वन्दन पत्रिका ' में एवं श्री उत्तम दास जी ने ' हरिवंश चरित्र ' में इस घटना का उल्लेख किया है ।
चैन घाट पर रचौ जु मंडल । हम नित रास रमत हैं इहि थल ।।
जहँ जहँ इष्ट चिताये हौर । प्रकट किये रसिकन सिरमौर ।
चाचा श्री वृन्दावन दास जी
मंडल चैन घाट पर कीनौ । रास केलि रास रसिकन दीनौ ।।
उत्तम दास जी
अस्तु, श्री हिताचार्य वाद ने इसी स्थल पर एक रज का चबूतरा बनाकर रास मंडल की स्थापना की । यह रासमण्डल ब्रज - वृन्दावन का सर्वाधिक प्राचीन रासमण्डल है । इसी रासमण्डल पर श्री आचार्य चरण के कुछ ब्रजवासी बालकों को प्रिया प्रीतम के श्रृंगार से सुसज्जित कर रासलीलानुकरण का शुभारम्भ किया । वस्तुत: यह रास मण्डल रास संस्कृति का उदगम स्थल है । आचार्य प्रवर की रास रस प्रियता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनकी ब्रजभाषा पघ रचना
'श्री हित चोरासी' जी में पन्द्रह रास के पद हैं । रास का सर्वाधिक प्रसिद्ध पद - ' आज गोपाल रास रस खेलत ' उनकी इसी रचना का एक पद है । रास के प्राम्भ में स्तुति रूप से - ' नमो - नमो जय श्री हरिवंश ' इस पद का गाया जाना भी उनके रास रस प्रवर्तक होने का घोतक है ।
श्री आचार्य चरणाक्षित नाद -
बिन्दु कुल के प्रचुर महानुभावों ने रास के रसमय पदों की रचना की है जिनमें गो. कृष्ण चन्द्र जी, श्री दामोदर स्वामी जी , गो. रूप लाल जी , गो. श्री हरिलाल जी , श्री नेही नागरी दास जी, श्री ध्रुवदास जी , श्री चन्द्र सखी जी, श्री कृष्णदास जी के नाम उल्लेखनीय हैं ।
श्री हरिदासी सम्प्रदाय -
रासलीलानुकरण के पुनरुद्धारक के रूप में स्वामी श्री हरिदास जी का उल्लेख नहीं मिलता परन्तु उनकी रास रस प्रियता जग-विख्यात है । उनकी निज मुख वाणी - एवं उनके अनुगत शिष्यों की वाणी में रास के पद प्रर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं । चुंकिं स्वामी जी संगीत के आचार्य हैं , उनके लिए श्री भक्तमालकार लिखते हैं -
गान कला गन्धर्व श्याम श्यामा कों तोषे ।
अत: निश्चित ही रास के कलात्मक अभिनय में उनका योगदान रहा होगा । रसिक अनन्य नृपति श्री स्वामी हरिदास जी के अतिरिक्त श्री बिट्ठल विपुल जी स्वामी किशोरदास जी , श्री विहारिन देव जी , श्री नागरी दास जी , श्री नरहरिदास जी एवं भगवत रसिक जी आदि रसिक महानुभावों ने रास सम्बन्धी सरस पदों की रचना की है ।
श्री वल्लभाचार्य जी -
रासलीला के पुनरुद्धारकों के रूप में पुष्टि सम्प्रदाय प्रवर्तक श्री वल्लभाचार्य जी का भी नाम लिया जाता है । उनहोंने भी मद् भागवत की ' सुबोधनि ' नामक टीका लिखी जिसके ' रास पंचाध्यायी ' प्रकरण में रास लीला का अति सुन्दर और सरस वर्णन किया है । उनके शिष्य श्री सूरदास जी श्री कुम्भ्न्न दास जी, श्री कृष्ण दास जी एवं श्री परमानन्द दास जी ने ब्रजभाषा में रास के सैकडों पदों की रचना करे रास रस प्रचार प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया । श्री आचार्य मतानुसार रास का आयोजन गिरिराज जी के निकटवर्ती चन्द्र सरोवर पर हुआ था ।
गौडीय सम्प्रदाय -
इस सम्प्रदाय के मतानुसार प्रेम पुरुषोत्तम श्री चैतन्य महाप्रभु भक्तों के सहयोग से श्री कृष्ण की अन्यान्य लीलाओं के साथ - साथ रास लीला का भी अभिनय किया करते थे जिसका उल्लेख १६ वीं शती में रचित ' श्री चैतन्य नाटक ' अंक ३ में तथा श्री चैतन्य चरितामृत में उपलब्ध है ।
कभू प्रेमावेश करेन गान नर्तन । कभू भावावेशे रासलीलानुकरण ।।
ब्रजाचार्य श्री नारायण भट जी जिन्होनें बरसाने में श्री लाडिली जी एवं ऊँचा गाँव में श्री बलदेव जी को प्रगट किया उनहोंने अपने अनुचर श्री ब्रजवल्लभ जी जो कि नृत्य - गायन कला में अन्यन्त निपुण थे, के साथ मिलकर ब्रजरासलीलानुकरण का प्रवर्तन किया । इतिहासकारों ने ब्रज के अनेक स्थलों में रास - मण्डल स्थापना एवं रासलीलाभिनय के पुनरुद्धार का श्रेय भी नारायण भट जी को दिया है । भक्तमाल में श्री प्रियादास जी ने भी रास विलास का प्रकटकर्त्ता कहा है -
हौर हौर रास के विलास लै प्रगट किये, जिए सो रसिक जन कोटि सुख पाये हैं ।
श्री निम्बार्क सम्प्रदाय -
इस सम्प्रदाय के मतानुसार रास रस प्रिय श्री युगल ने श्री घमण्डदेवाचार्य जी को मुकुट चंद्रिका प्रदान कर लोक में उनकी रसमयी लीलाओं के प्रचार प्रसार कि आज्ञा दी । अत : घमण्डदेवाचार्य जी ने ब्रज के करहला ग्राम में रासमण्डल स्थापित कर स्थानीय ब्रजवासियों के सहयोग से रासानुकरण का प्रचलन किया । रासानुकरण का यह शुभारम्भ भाद्रपद शुकल पूर्णिमा को किया गया था । सम्प्रदाय में यह तिथि रास - पूर्णिमा के रूप में मनाई जाती है । इस सम्प्रदाय के आदिवाणीकार श्री श्री भट २ जी , श्री हरिब्यास जी , श्री रुपरसिक जी, श्री वृन्दावन देव जी, श्री गोविन्द शरण जी आदि आचार्यों एवं भक्त कवियों ने रास के अनेकों पदों की रचना कर रास रस के प्रचार प्रसार में अपना योगदान दिया ।
वर्तमान में रासलीलानुकरण की स्थिति -
रास रास के भावुक उपासकों के लिए रासमण्डल एक मंदिर एवं रास के स्वरूप साक्षात् उनके आराध्य युगल एवं उनका परिकर ही है । मुकुट चन्द्रिका धारण होने के उपरान्त श्री प्रिया-प्रीतम एवं सखियों के वेश में श्रृंगारित ब्रजवासी बालकों में भावुक भक्त सपरिकर युगल का ही दर्शन करते हैं एवं लाड़ लड़ाते हैं । पिछले कुछ वर्षों में जहाँ एक ओर रासमंडलियों की संख्या में अभिवृद्धि हो रही है वहीं रासलीला में पूर्व स्थापित परम्पराओं का ह्रास हो रहा है । अभी कुछ समय पूर्व तक रास मण्डली के स्वामी जहाँ रासलीला में रास की प्राचीन परिपाटी का, रसिकों की स्वानुभूज वाणियों का, शास्त्रीय संगीत एवं पारम्परिक वेशभूषा का प्रयोग करने चले आ रहे थे वहीं आधुनिकता की दौड़ में कतिपय रास - मण्डलियों के स्वामियों को छोड़ शेष मण्डलीधारी अपनी प्राचीन परम्पराओं को विस्मृत कर लोकरंजन हेतु कुछ भी करने को तत्पर हैं । आज शास्त्रीय संगीत का स्थान फिल्मी संगीत, वाणियों के पदों का स्थान प्रचलित लोकगीतों ने ले लिया है एवं बहुधा आयोजनों के ब्रज से बाहर होने के कारन ब्रजभाषा संवादों का स्थान सामान्य बोलचाल की भाषा लेती जा रही है , जो अति दुखद है । इन सब बातें का ब्रज की प्राचीन संस्कृति पर कुभाव पड़ रहा है ओर वह ह्रास की ओर अग्रसर है ।
ब्रज वृन्दावन की पहचान - " रासलीला " -
अनन्त कलाओं एवं विधाओं के उत्स आनंदकंद श्री कृष्ण चन्द्र ने जिस प्रकार दुष्टों का संहार ओर धर्म की स्थापना के साथ राजनीति, कूटनीति, अर्थनीति , शस्त्र एवं शास्त्र विद्या में परम पारदर्शिता प्रकट की ; उसी प्रकार नृत्य-गायन ओर वादन कलाओं का भी चरमोत्कर्ष अपनी मधुर रस वर्षिणी लीलाओं के माध्यम से स्थापित किया । ललित कलाओं की पराकाष्ठा श्री रासलीला में ही प्रगटित हुई । इसी कारण श्री कृष्ण सोलह कलाओं से परिपूर्ण स्वयं ब्रहम माने जाते हैं। श्री राधाकृष्ण की रासलीला की चिन्मयी रसधारा ने ब्रजभूमि के साथ-साथ सम्पूर्ण भारतवर्ष के प्रांगन को भी रससिक्त कर दिया । यह रासलीला किसी न किसी रूप से भारत के प्राय : सभी भागों में पाइ जाती है किन्तु भक्तियुग में हुये रासलीला के पुनरुत्थान का श्रेय ब्रज भूमि को ही हैं ; कारण कि ब्रज वृन्दावन ही इसका उत्स है ।
प्राम्भिक काल में तो रास लीला ब्रज-वृन्दावन में ही होती थी परन्तु पश्चात् में ब्रज से इतरा भारत के (अन्य स्थानों) पर भी होने लगी और अब तो रासलीला के आयोजन विदेशों तक में होते हैं । कहते हैं उपरान्त में जब श्री कृष्ण ब्रज छोड़कर द्वारिकावासी हो गये तो वह अपने परिकर, अपनी पटरानियों बने ब्रज की मधुमयी लीलाओं की स्मृति द्वारा आनंद विभोर करते रहते एवं स्वयं भी आनन्दित होते, उन्हीं मधुर स्मृतियों में डूब जाया करते । श्री कृष्ण ने अपनी अन्य बल - लीलाओं के साथ-साथ अपनी कैशोरावस्था में श्री जी एवं ब्रज गोपियों के साथ सम्पन्न रासलीला के सम्बन्ध में भी निज परिकर को बताया था । सूर्यग्रहण के समय श्री नन्द यशोदा, श्री जी , ब्रज के गोप गोपियों का कुरुक्षेत्र में श्री कृष्ण से मिलन हुआ । श्री कृष्ण के अत्याग्रह पर समस्त ब्रजवासी द्वारिका गये । श्री जी सहित समस्त ब्रजवासियों को द्वारिका आया देख श्री कृष्ण की पटरानियों ने श्री कृष्ण से रास रस दर्शन की अभिलाषा प्रगट की । रास सम्बन्धी समस्त वयवस्था की गई, रासमण्डल भी बनवा गया परन्तु वहां रास नहीं हो पाया, क्यों ? क्योंकि श्री किशोरी जू ने कहा कि यहाँ मेरे ह्दय में रस का संचार नहीं हो रहा एवं बिना रस कैसा रास ? अस्तु, मात्र आरती करके ही इस मांगलिक कार्य को विराम देना पड़ा । कहने का अभिप्राय कि रास रस का जो भाव ब्रज वृन्दावन में दृष्टिगोचर होता है अन्यत्र नहीं रसिकों की भाषा रासलीला इसी रसभूमि में ही अपने चरमोत्कर्ष को प्राप्त होती है । ब्रज - वृन्दावन और रास लीला का अनादि, अखण्ड और नित्य सम्बन्ध है, यह वृन्दावन की पहचान है ।
नित्य ( दैनिक ) रासलीला की आवश्यकता -
1. ब्रज की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक धरोहर 'रासलीला' जो कि रसिकों के चिन्तन का आधार है कि परम आवश्यकता है । प्रगट में होने वाली रासलीला दर्शन के माध्यम से ही साधक मानसी में प्रवेश पाता है ।
2. यह प्राकृतिक कामवासनाओं को समूल नष्ट कर दर्शकों के विषयात्मक मन को काम-विजयी श्री कृष्ण के चरण कमलों का बना देती है । इस लीलाओं के दर्शन से उनका ह्दय शुद्ध और बुद्धि निर्मल हो जाती है ।
3. इसमें समाज के सभी वर्गों के लोक बिना भेदभाव के सम्मिलित हो रसान्वित हो सकते हैं ।
4. भगवद् प्राप्ति के अन्य साधन अति दुरूह और दू : साहय है, परन्तु रासलीला एक अति सरस और सरल मार्ग है इसमें चित्त लगाना नहीं पड़ता स्वत : लग जाता है अत: रास लीला के प्रचार - प्रसार की महती आवश्यकता है|
5. अपने नित्य और निज स्वरूप में सिथत होकर श्री वृन्दावन के दिव्य नित्य रास का दर्शन करना सर्वसाधारण भक्तों के लिए सवर्था अशक्य है । अलिखित ( जिसे पूर्व में देखा न हो ) वस्तु की भावना करना सरल कार्य नहीं है यह मात्र कृपाबल पर ही आश्रित है । मानसी भावना का मार्ग प्रशस्त करने एवं अगोचर को गोचर करने में रासलीला ही सामर्थ है ।
6. रासलीलानुकरण में चित्ताकर्षण की अमोघ शक्ति है । जहाँ वृन्दावन रास रस रसिक जन अपनी भावनाओं को मूर्त रूप में देख फुले नहीं समाते वहीँ सर्वमान्य भक्तजन भी इसके दर्शन से तत्क्षण रसानुभूति प्राप्त करते हैं एवं उनके मन मधुप वृन्दावन रस माधुरी के रस्लोलुप होकर रस - भजन की ओर उन्मुख होते हैं ।
वर्तमान में रासमंडलियों की चिन्ताजनक स्थिति -
पिछले कुछ वर्षो से रासमंडलियों की संख्या निरन्तर कम होती जा रही है । पूर्व में जहाँ 150 मंडलियाँ थीं वह घटकर 50 - 60 तक रह गई हैं इनमें भी कुछ मंडलियाँ तो काम चलाऊ हैं जो अवसर मिलने पर यत्र तत्र से पात्रों की व्यवस्था कर काम चलती चलाती हैं ।
1. श्री मद् भागवत के व्यापक प्रचार प्रसार से इनके गाने बजाने वाले कलाकार सभी उसी और आकृष्ट हैं क्योंकि यहाँ तो उनको रास में सेवा के वर्ष में दो - एक अवसर ही मिल पते हैं ।
2. नयी पीढ़ी के ब्रजवासियों का इस ओर रुझान न होने के कारण उनका अपने बालकों को इस शेत्र में आने से मना करना ।
3. मंडलियों में पात्रों की संख्या 20 से 25 तक होने के कारण उनका आर्थिक बोझ मंडलीधारी स्वामी के लिए सदा चिन्ता का विषय बना रहता है । एवं काम न मिलने पर मंडली टूटने का भय बना रहता है।
4. समाज में टी.वी. सिनेमा, मोबाइल के अत्यधिक प्रचार से लोगों में इसकी लोकप्रियता में कमी आई है ।
5. यदि उपरोक्त कारणों का समय रहते निवारण नहीं किया गया तो ब्रज की यह रसमयी रस संस्कृति रासलीला जिसका आधार यह रासमंडलियाँ हैं, लुप्त हो इतिहास का विषय बन जायेगी ।
6. वर्तमान में श्री वृन्दावन में अच्छे स्तर पर कहीं भी रासलीला नहीं हो रही है । पहले वंशीवट और टोपीकुँज, रासमंडल आदि में नित्य रास होता था परन्तु अभीमात्र सावन और होली आदि पर्वों पर ही कुछ दिनों के लिए रास आयोजित किया जाता है । स्थानीय रसिक भक्तों एवं आगत श्रद्धालुओं के लिए नित्तान्त दुर्लभ हो रहा है । यदि यही स्थिति रही हो धीरे - धीरे ब्रज की यह अमूल्य सम्पति विलुप्त हो जायेगी । अत : इसके व्यापक प्रचार प्रसार की अति आवश्यकता है ।
श्री हिताश्रम में नित्य रासलीला -
रसोपासना को एक लब्ध प्रतिष्ठित संस्थान "श्री हिताश्रम सत्संग भूमि (वृन्दावन)" के तत्वाधान में समय-समय अनेकानेक रसमय आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होते रहते हैं । रासेश्वरी श्री किशोरी जू की परम अनुकम्पा से ही रासलीला की वर्तमान स्थिति को सुधारने एवं इसकी लोप होती परम्पराओं को पुनजीवित करने, रासमंडलियों में एक नूतन चेतना का संचार करने, ब्रजवासियों की सेवा करने, रास रस प्रेमी रसिकों को उनका ध्येय प्राप्त करवाने, आगत रसिक भक्तों को रास रस दर्शन के माध्यम से रसान्वित करने एवं ब्रज की इस अनुपम धाती को सुरक्षित करने की दृष्टि से श्री हिताश्रम में नित्य प्रति रासलीला करवाने की एक मंगलमयी योजना है । चूंकि श्री हिताश्रम, श्री वृन्दावन के मध्य में सिथत स्थित है अत: दर्शनार्थियों के आने जाने लिये एक सुविधापूर्ण स्थल है ।
दूसरा इसमें अभी - अभी ही ' नित्य रास ' की इसी योजना को दृष्टिपथ में रखते हुये सभी सुविधाओं से युक्त एक भव्य रासमंडल ( रास का मंच ) तैयार करवाया गया है जो श्रृंगार - कक्ष से सलंग्न है । मंच इतना विस्र्त्त है कि समागत विशिष्ट संत महापुरुष मंचासीन हो निकट से रास लीला का दर्शन लाभ प्राप्त कर रसान्वित हो सकते हैं ।
वृन्दावन धाम के समस्त सन्तों, महान्तों , रसिकों एवं वैष्णव जनों के आशीर्वाद सद्भाव , प्रेम भाव से कृतार्थ और उत्साहित हो । श्री हिताश्रम सत्संग भूमि के वर्तमान महान्त ' उत्सव - मूर्ति 'श्री हित कमल दास जी महाराज' ने अपने दादा गुरु श्री हित कृपा - मूर्ति स्वामी श्री हितदास जी महाराज के ही रास सम्बन्धी सकल्प को पूर्ण करने का एक पावन व शुद्ध संकल्प लिया है।
स्थाई कोष कि आवश्यकता -
संकल्प शुद्ध हो और मन में द्रढ़ विश्वास हो तो कार्य - सिद्धि में विलम्ब नहीं होता । श्री जी के प्रेरणा से इस महान उधेश्य एवं योजना के साफल्य हेतु, इसे भविष्य में निर्विघ्न रूप से नित्य ( दैनिक ) रूप से संचालित करने के लिए एक ' स्थाई कोष 'योजना बनाई गई है । इसे मूर्त - रूप देने के लिए " श्री राधावल्लभ रासलीला सेवा संस्थान " नामक एक ट्रस्ट गठित किया गया है जिसमें संरक्षक के पद पर ब्रज वृन्दावन कि दो महान विभूतियाँ - ब्रज - गौरव परम पूज्य श्री गुरुशरणानन्द जी महाराज एवं जगद्गुरु मलूक पीठाधीश्वर श्री राजेन्द्र दास जी महाराज, सुशोभित हैं । ट्रस्ट ने अपने सत्संकल्प कि पूर्ति हेतु 2 करोड़ रुपये का स्थाई कोष, जिसे भविष्य में आवश्यकतानुसार 10 करोड़ तक भी किया जा सकता . बनाने का निश्चय किया है
1. इसके प्राम्भिक प्राप्त ब्याज लगभग 5000 /- रु. प्रतिदिवस से ब्रजमंडल कि प्रत्येक मंडली को रासलीला करने का अवसर मिलेगा, उसका पोषण होगा ।
2. कोष में अभिवृद्धि होने पर रासलीलानुकरण के पात्रों को ट्रस्ट की ओर से समय - समय पर वित्तीय सहायता प्रदान की जायेगी ।
3. पूर्व अथवा वर्तमान में रासलीला नुकरण से सम्बन्धित वृद्ध एवं अस्वस्थ व्यक्तियों को यथासंभव सहायता दी जायेगी । साथ ही रासलीला में भाग लेने वाले बालकों की शिक्षा, रास-बिहारी सरकार की पोशाक, साज - सज्या के ठाठ - बाठ पर भी धन का उपयोग किया जायेगा ।
4. रासलीला, प्राचीन पद्धति से रसिक महापुरुषों की वाणियों के पदों - लीलाओं के आधार पर हो इसके लिए शास्त्रीय संगीत - गायन - वादन शिक्षा का भी ट्रस्ट की ओर से प्रावधान है ।
विनम्र निवेदन -
रास रस प्रेमी सभी सुधी जनों, सन्त महान्तों, रसिक वैष्णवों से विनम्र निवेदन है कि श्री जी की प्रेरणा से प्राप्त इस शुद्ध संकल्प को पूरा करने में अपना पूर्ण योगदान दें । जिनका यह वृन्दावन धाम है , उन्हीं की यह रासलीला है, उन्हीं की कृपा से हमें यहाँ निवास करने का सुअवसर प्राप्त हुआ है । श्री जी ने रास रस की सेवा का हमें एक स्वर्णिम अवसर प्रदान किया है अत : हमें उदारता पूर्वक आगे बढ़कर तन - मन - धन से इस सेवा का लाभ उठाना चाहिये। होना तो यह चाहिये था कि वृन्दावन में अनेकों स्थलों पर रासलीला नित्य होती परन्तु यदि एक स्थान के लिये भी हमारा प्रयास ईमानदारी से भरा होगा तो हम आने वाली पीढ़ी को यह रास - संस्कृति दे पायेंगे और वर्तमान में स्वयं भी इस का रसास्वादन कर पायेंगे । आज जहाँ बड़े - बड़े मंदिर, आश्रम, गेस्ट हाउस, एपार्टमैंट बन रहे हैं , आये दिन फुल बंगलों, छप्पन भोग, श्री मद् भागवत के भव्य से भव्य आयोजन हो रहे हैं वहीं जिनका यह वृन्दावन है जिनके लिए हम हार छोड़ कर आये हैं उन्ही की रासलीला दर्शन का आभाव - यह कैसी विडम्बना है ? अत: उपस्थित शुभ अवसर का सभी को स्वयं भी लाभ उठाना चाहिये एवं अन्यों को भी प्रेरित करना चाहिये।